वांछित मन्त्र चुनें

सं वर्च॑सा॒ पय॑सा॒ सं त॒नूभि॒रग॑न्महि॒ मन॑सा॒ सꣳशि॒वेन॑। त्वष्टा॑ सु॒दत्रो॒ वि द॑धातु॒ रायोऽनु॑मार्ष्टु त॒न्वो᳕ यद्विलि॑ष्टम् ॥१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। वर्च॑सा पय॑सा। सम्। त॒नूभिः॑। अग॑न्महि। मन॑सा। सम्। शि॒वेन॑। त्वष्टा॑। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑। वि। द॒धा॒तु॒। रायः॑। अनु॑। मा॒र्ष्टु॒। त॒न्वः᳖। यत्। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम् ॥१४॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:14


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी मित्रकृत्य का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सब विद्याओं के पढ़ाने (त्वष्टा) सब व्यवहारों के विस्तारकारक (सुदत्रः) अत्युत्तम दान के देनेवाले विद्वन् ! आप (संशिवेन) ठीक-ठीक कल्याणकारक (मनसा) विज्ञानयुक्त अन्तःकरण (संवर्चसा) अच्छे अध्ययन-अध्यापन के प्रकाश (पयसा) जल और अन्न से (यत्) जिस (तन्वः) शरीर की (विलिष्टम्) विशेष न्यूनता को (अनुमार्ष्टु) अनुकूल शुद्धि से पूर्ण और (रायः) उत्तम धनों को (विदधातु) विधान करो। उस देह और शरीरों को हम लोग (तनूभिः) ब्रह्मचर्य व्रतादि सुनियमों से बलयुक्त शरीरों से (समगन्महि) सम्यक् प्राप्त हों ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि पुरुषार्थ से विद्या का सम्पादन, विधिपूर्वक अन्न और जल का सेवन, शरीरों को नीरोग और मन को धर्म में निवेश करके सदा सुख की उन्नति करें और जो कुछ न्यूनता हो, उस को परिपूर्ण करें, तथा जैसे कोई मित्र तुम्हारे सुख के लिये वर्त्ताव वर्त्ते, वैसे उसके सुख के लिये आप भी वर्त्तो ॥१४॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(सम्) क्रियायोगे (वर्चसा) अध्ययनाध्यापनप्रकाशेन (पयसा) जलेनान्नेन वा। पय इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) अन्ननामसु च। (निघं०२.९) (सम्) (तनूभिः) शरीरैः (अगन्महि) प्राप्नुयाम, अत्र गम्लृधातोर्लिङर्थे लुङ्। मन्त्रे घसह्वर०। (अष्टा०२.४.८०) इत्यादिना च्लेर्लुक्। म्वोश्च। (अष्टा०८.२.६५) इति मस्य नः। (मनसा) विज्ञानवतान्तःकरणेन (सम्) (शिवेन) कल्याणकारकेण (त्वष्टा) सर्वव्यवहाराणां तनुकर्त्ता (सुदत्रः) सुदानः (वि) (दधातु) करोतु (रायः) धनानि (अनु) (मार्ष्टु) पुनः पुनः शुन्धतु (तन्वः) शरीरस्य (यत्) (विलिष्टम्) विशेषेण न्यूनमङ्गम्। अयं मन्त्रः (शत०४.४.४.१४-१५) व्याख्यातः ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक ! त्वष्टा सुदत्रो विद्वान् भवान् संशिवेन मनसा संवर्चसा पयसा यत् तन्वो विलिष्टमनुमार्ष्टु रायो विदधातु तत् तानि च वयं तनूभिः समगन्महि ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणां योग्यतास्ति पुरुषार्थेन विद्यां सम्पाद्य विधिवदन्नोदकं संसेव्य शरीराण्यारोगीकृत्य मनो धर्म्मे निवेश्य सदा सुखोन्नतिं कृत्वा या काचिन्न्यूनतास्ति तां सम्पूरयन्तु, यथा कश्चित् सुहृत् सख्युः सुखाय वर्त्तेत, तथा तत्सुखाय स्वयमपि वर्त्तेत ॥१४॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी पुरुषार्थाने विद्या संपादन करून विधीपूर्वक अन्न व जल ग्रहण करावे. शरीर निरोगी ठेवावे, मनाला धर्माकडे वळवावे व नेहमी सुखी राहावे. जी कमतरता असेल त्याची पूर्तता करावी. तुमचा मित्र जसे वर्तन तुमच्या सुखासाठी करतो तसे वर्तन तुम्ही त्याच्या सुखासाठी करावे.